मौत की आवाज- अकरम इलाहाबादी
पिछले हफ्ते इब्ने सफ़ी बी.ए.
जी की कृति ‘मूंछ मूँडने वाले’ पढ़ी थी,
न जाने क्यों मगर मुझे उसे पढ़ने पर वह संतुष्टि प्राप्त नहीं हुई जो सामान्यतः सफ़ी
जी की किताबें पढ़ कर प्राप्त होती हैं. शायद इसीलिए इस हफ्ते मैंने किसी अन्य लेखक
की रचना पढ़ने का विचार किया और अपने कलेक्शन से मशहूर लेखक अकरम इलाहाबादी द्वारा लिखित
उपन्यास ‘मौत की आवाज’ जो की जासूसी मासिक ‘जासूसी
पंजा’ के तीसवें अंक में प्रकाशित हुआ था ढूंढ निकाला. हालांकि मैंने
अकरम जी की लेखनी के शाहकर कुछ ही उपन्यास पढे हैं, चूंकि वो उर्दू लेखक थे और
अब तक उनके केवल कुछ ही उपन्यास मुझे हिन्दी में मिल पाये हैं;
परंतु यह कहना उचित होगा उनकी लेखनी भी काफी संतुलित तथा रोमांचकारी थी तथा इन कुछ
उपन्यासों को पढ़ कर यह समझ सका हूँ कि वह भी पाठक को अपनी कहानी से अंत तक बांधे रखने
की महारत रखते थे.
चलिये बात करते हैं ‘जासूसी
पंजा’ मासिक के तीसवें अंक की, जिसमें प्रकाशित हुई थी अकरम इलाहाबादी द्वारा लिखित
उपन्यास ‘मौत की आवाज’.
किताब की शुरुआत होती है अत्यंत घनघोर
बारिश की रात से जब शहर अकबरपुर के एक सम्मानित व्यक्ति सर अकबर की रहस्यमय ढंग से
मृत्यु हो जाती है जो कि अपने पीछे एक नौजवान पुत्र शहजाद और पुत्री गजाला को छोड़ जाते
हैं, सुप्रीटेंडेंट खान तथा सार्जेंट बाले को तफतीश के दौरान यह मालूम
होता है कि अकबर जी मृत्यु के 1 हफ्ते पहले से कुछ अजीब अजीब आवाजें सुन रहे थे जो
उन्हे कहती थी ‘तुम मर जाओगे’ तथा उनका बर्ताव भी बड़ा अजीबोगरीब हो चला था. प्रारम्भिक
खोज बीन में पुलिस को कोई संदेहास्पद संदेह तो न हुआ परंतु उन्हे पूछताछ से यह जरूर
आभास हुआ कि मृत्यु के पीछे लोगों को रूहानी ताकतों, शैतानों के होने का शक है.
तफतीश के दौरान ही उन्हे सर अकबर कि वसीयत तथा अपने पुत्र को संबोधित एक पत्र भी प्राप्त
होता है जिसमें वह अपने पुत्र को यह बताते हैं कि उनकी एक नाजायज पत्नी तथा बेटा है
तथा वह पत्र के द्वारा अपने पुत्र से यह दरख्वास्त भी करते हैं कि वह अपनी सौतेली माँ
तथा भाई को खोजे तथा उन्हे अपने साथ लाये.
पुलिस के जाने के बाद उसी रात
अकबर जी के पुत्र शहजाद को भी उसी प्रकार कि अजीब आवाज सुनाई देती है जो उसे भी कहती
है कि ‘तुम मर जाओगे’, इस घटना से भयभीत शहजाद और गजाला अपनी मौसी के साथ
वह हवेली छोड़ के जाने का निर्णय लेते हैं मगर तभी वहाँ दो अजनबी आते हैं जो उन्हे यह
समझाते हैं कि वे उनके पिता के पीर शागिर्द थे तथा उनके होते हुए कोई उनका कुछ नहीं
बिगाड़ पाएगा.
परंतु अगले ही दिन शहजाद पर
जान लेवा हमला होता है तथा वे दोनों अजनबी भी हवेली के पीछे बेहोश अवस्था में पाये
जाते हैं. अत्यंत सोच विचार के बाद अन्य लोग भी सहमत होने लगते हैं कि उस हवेली में
किसी शैतान का वास है जो कि सर अकबर के वंश का विनाश करके ही मानेगा.
क्या खान और बाले इस गुत्थी
को सुलझा पाएंगे? क्या सच मुच हवेली में किसी शैतान का साया था?
कौन थे वे दो अजनबी? सर अकबर के नाजायज बीवी तथा बेटे का क्या रहस्य था?
इस उपन्यास में एक एक गुत्थी धीरे धीरे खुलती है जो कि हमें अंत तक इस कहानी से बांधे
रहती है.
इस उपन्यास को पढ़ने पर हमें
कई तथ्य भी प्राप्त होते हैं. जैसे कि यह आवश्यक नहीं कि कोई व्यक्ति हमें पहली नजर
में जैसा प्रतीत हो, वह असलियत में वैसा ही हो.
या फिर धन के लालच में एक औरत अपने पति के खिलाफ भी साजिश रच सकती है. तथा अगर हम प्रयास
करें तो हर अकल्पनीय घटना के पीछे का कारण भी पता लगाया जा सकता है.
168 पेज का यह विशेषांक मुझे
काफी आनंदित लगा, तथा अकरम जी का लेखन सराहनीय है.
और हाँ एक और बात,
हिन्दी में पढ़ने के बावजूद भी इसमें उर्दू शब्दों का अत्यधिक प्रयोग है तथा इतने दिनों
बाद पढ़ने पर मुझे गर्व हो रहा है कि मैं अभी भी काफी उर्दू शब्दों का अर्थ समझ पाता
हूँ.
आशा करता हूँ आप में जी जिन
लोगो ने इस उपन्यास का वाचन किया है वह भी अपने विचार जरूर साझा करेंगे.
My Rating: 4/5